करकचतुर्थी ( करवाचौथ ) (वामनपुराण) - यह व्रत कार्तिक कृष्णकी चन्द्रोदयव्यापिनी चतुर्थीको किया जाता है। यदि वह दो दिन चन्द्रोदयव्यापिनी हो या दोनों ही दिन न हो तो 'मातृविद्धा प्रशस्यते' के अनुसार पूर्वविद्धा लेना चाहिये। इस व्रतमें शिव- शिवा, स्वामिकार्तिक और चन्द्रमाका पूजन करना चाहिये और नैवेद्यमें (काली मिट्टीके कच्चे करवेमें चीनीकी चासनी ढालकर बनाये हुए) करवे या घीमें सेंके हुए और खाँड मिले हुए आटेके लड्डू अर्पण करने चाहिये। इस व्रतको विशेषकर सौभाग्यवती स्त्रियाँ अथवा उसी वर्षमें विवाही हुई लड़कियाँ करती हैं और नैवेद्यके १३ करवे या लड्डू और १ लोटा, १ वस्त्र और १ विशेष करवा पतिके माता-पिताको देती हैं। व्रतीको चाहिये कि उस दिन प्रातः स्नानादि नित्यकर्म करके 'मम सुख सौभाग्य- पुत्रपौत्रादिसुस्थिर श्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये ।' यह संकल्प करके बालू (सफेद मिट्टी) की वेदीपर पीपलका वृक्ष लिखे और उसके नीचे शिव-शिवा और षण्मुखकी मूर्ति अथवा चित्र स्थापन करके 'नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संततिं शुभाम्। प्रयच्छ भक्तियुक्तानां नारीणां हरवल्लभे ॥' से शिवा (पार्वती) - का षोडशोपचार पूजन करे और 'नमः शिवाय' से शिव तथा 'षण्मुखाय नमः' से स्वामिकार्तिकका पूजन करके नैवेद्यका पक्वान्न (करवे) और दक्षिणा ब्राह्मणको देकर चन्द्रमाको अर्घ्य दे और फिर भोजन करे। इसकी कथाका सार यह है कि- 'शाकप्रस्थपुरके वेदधर्मा ब्राह्मणकी विवाहिता पुत्री वीरवतीने करकचतुर्थीका व्रत किया था। नियम यह था कि चन्द्रोदयके बाद भोजन करे। परंतु उससे भूख नहीं सही गयी और वह व्याकुल हो गयी। तब उसके भाईने पीपलकी आड़में महताब (आतिशबाजी) आदिका सुन्दर प्रकाश फैलाकर चन्द्रोदय दिखा दिया और वीरवतीको भोजन करवा दिया। परिणाम यह हुआ कि उसका पति तत्काल अलक्षित हो गया और वीरवतीने बारह महीनेतक प्रत्येक चतुर्थीका व्रत किया तब पुनः प्राप्त हुआ।




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करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के जम्मू[1], हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मनाया जाने वाला पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह व्रत सवेरे सूर्योदय से पहले लगभग 4 बजे से आरंभ होकर रात में चंद्रमा दर्शन के उपरांत संपूर्ण होता है।


ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियाँ करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं। शास्त्रों के अनुसार यह व्रत कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की चन्द्रोदय व्यापिनी चतुर्थी के दिन करना चाहिए। पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की अर्चना की जाती है। करवाचौथ में भी संकष्टीगणेश चतुर्थी के जैसे दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अ‌र्घ्य देने के उपरांत ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव अधिकतर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।


कार्तिक कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को करकचतुर्थी (करवा-चौथ) व्रत करने का विधान है। इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं।


यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक निरंतर प्रति वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन (उपसंहार) किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियाँ आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अतः सुहागिन स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करें।



।।आप सभी को SHANTI DHAM की और से करवा चौथ की हार्दिक शुभकामनाएं।।